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” हर ख़ुशी है आज कल लोगो के दामन में ,
पर उनके चेहरे पर मुस्कुराने के लिए वक़्त नहीं !!
दौड़ते रहते है यूं ही दिन रात ,
उनके पास खुद अपनी जिन्दगी के लिए भी वक़्त नहीं!!
बचपन में जब माँ लोरी सुनाया करती थी,
आज उस लोरी के अहसास के लिए भी वक़्त नहीं
और माँ को माँ कहने के लिए भी वक़्त नहीं !!
गैरों से क्या बात करे जब अपनों के लिए ही वक़्त नहीं.
मार चुके है आज हम सारे रिस्तो को,
पर उन्हें दफनाने के लिए वक़्त नहीं!!
ऑफिस से आता हूँ तो आखों में बहुत नींद होती है
पर क्या करू अब मेरे पास सोने के लिए भी वक़्त नहीं.
पैसो की दौड़ में ऐसे दोड़े की अब तो थकने के लिए भी वक़्त नहीं.
दुसरो के अहसानों की क्या कदर करोगे आप जब
आपको खुद अपने सपनो के लिए वक़्त नहीं!!
आप ही बताओ पाठकगण ये कविता कहा तक
सही है वरना मई समजूंगा की आपके पास पड़ने के बाद कमेन्ट करने के लिए भी वक़्त नहीं!!
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